इनके विषय में अनेक भ्रान्तियाँ हैं । इतिहासकारों ने महर्षि कणाद का समय ईसापूर्व 400 से 500 के मध्य का माना है । इनका जन्म स्थान कठियावाड़ बताया जाता है । इनको शिव का अवतार भी माना गया है । लिखा गया है कि महर्षि खेतों में पड़े हुए अन्न के कणों का भक्षण करके अपना जीवन यापन करते थे , इसलिए उनका नाम कणाद ( कणभुक ) पड़ गया है । महर्षि कणाद ने “ नाडी - विज्ञान " के रचनाकार के रूप में स्वयं को स्थापित किया है । नाडी का ज्ञान सतत अभ्यास करने से प्राप्त होता है । इसके द्वारा वात , पित्त , कफ , द्वन्द्वज , सन्निपातज व्याधियों के साध्य - असाध्य का ज्ञान होता है । नाडी द्वारा वैद्य रोगी के मृत्यु का समय भी सफलतापूर्वक बतला सकता है । इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ में रोगी के द्वारा किए गए विभिन्न कार्यों के करने तथा भिन्न - भिन्न पदार्थों के खाने पर जैसी - जैसी नाडी की गतियाँ होती हैं , उन सभी प्रकार की गतियों में होने वाली अन्तर का सूक्ष्म रूप से विभेद किया गया है त्रिदोषे नाडीगतिः असाध्यसन्निपातजा नाडी मृत्युकालज्ञानम् असाध्यवल्लक्षितायामपि साध्यत्वम् निस्पन्दनायामपि मृत्योरपवादः मृत्युभयापवादः स्वस्थनाडीलक्षणम् दुष्टनाडीलक्षणम् सुखसाध्यनाडी द्रवयविशेषभक्षणे नाडीगतिः रसविशेषभोजने नाडीगति रसानां शमनकोपत्वम् प्रसङ्गवशात् रसानां विपाकमाह प्रसङ्गवशाद् द्रव्याणामपि रसघर्मत्वमाह प्रातरादी सुस्थानाडीगतिमाह ज्वरपूर्वरूपे नाडीगतिः सन्निपातिकपूर्वरूपे नाडी
ISBN 9788194104490
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