" लग्नवाराही " निष्कन्ध ज्योतिष को होरा भाग का पूरक माना गया है । ज्योतिष प्रत्यक्ष शास्त्र माना गया है । जिसके कारण यह सदैव नवीन रहता है । इसलिए इसकी तरफ सभी लोगों की दृष्टि आकर्षित होती रहती हैं । यह ग्रन्थ नित्य नवीनता लिए रहता है क्योंकि दैवज्ञ ( ज्योतिषी ) लोग निरन्तर अनुसंधान करते रहते हैं । ' लग्नवाराही ' नामक ग्रन्थ को भी इसी परम्परा का प्रतिफल माना गया है । इसमें पुरुष जातक और स्त्री जातक तथा कुछ दूसरी विशेषानुभूतियों का संग्रह किया गया हैं । इस ग्रन्थ में लेखक ने कहीं भी अपने नाम का वर्णन संकेत नहीं किया हैं । इससे सिद्ध होता हैं कि यह ग्रन्थ किसी प्राचीन ऋषि की अनुभूति कृति हैं । इसके रचना काल का निर्धारण करना नितान्त कठिन कार्य हैं । इस पुस्तक की सम्पूर्ण रचना उन्नचास ( 49 ) श्लोकों में की गई हैं । इसके साथ - ही - साथ इसे चार लघु अध्यायों में विभक्त किया गया हैं यथा- ( 1 ) पुरुष जातक ( 2 ) स्त्री जातक ( 3 ) योगाध्याय तथा ( 4 ) प्रश्नाध्याय पुरुष जातक के लग्न आदि बारह भावों में सूर्य आदि ग्रह हों , तो जातक ( शिशु ) का जीवन काल किस तरह से होगा , किस - किस तरह की जीवन में सुख - दुख , अच्छी - बुरी घटनाएँ घटित होगी , इसके विषय में उल्लेख किया गया है , लेकिन इसमें राहु - केतु के कारण प्राप्त होने वाले अच्छे बुरे फलों का कोई उल्लेख नहीं है । स्त्री जातक के फल में राहु का फल तीसरे श्लोक " सैहिकेयः " में मिलता है । इससे यह भी संभावना अधिक हो जाती हैं कि स्त्री जातक की रचना , पुरुष जातक के अधि समय पश्चात् रचना हुई होगी । इसका एकमात्र कारण यह है कि इसमें सभी जगहों पर राहु का फल दिया गया है । योगाध्याय में सम्पूर्ण अट्ठारह ( 18 ) श्लोक हैं । इसमें प्रमुख एवं नितान्त आवश्यक सम्पूर्ण योगों का वर्णन कुछ विशेषता के साथ किया गया है । यथा - श्लोक में लिखा गया हैं कि मात्र चतुर्थ तथा धन भाव क्रूर ग्रहों का होना सम्पूर्ण वंश का नाशक माना गया है परन्तु अन्य स्थान पर लिखा गया |
ISBN 9789356170025
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